Free BGDG-172 Solved Assignment Hindi Medium (2020-21)

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B.G.D.G-172

जेंडर संवेदिकरण: समाज और संस्कृति

1. पुरुषतव (मर्दानगी) की संकल्पनाओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन, उचित उदाहरण देते हुए कीजिए ।

उत्तर – पुरुषत्व (मैस्कुलिनिटी) शब्द ‘पौरुष (मैस्कुलिन)’ का संज्ञा रूप है, जिसका तात्पर्य पारम्परिक रूप से पुरुषों से सम्बद्ध गुणों और दिखावट, खासतौर पर ताकत और आक्रामकता, को धारण करने से है। दूसरे शब्दों में, पुरुषत्व प्राथमिक रूप से ऐसी विशेषताओं और गुणों से सम्बद्ध है. जिन्हें सामाजिक रूप से परिभाषित और निर्मित किया जाता है। इस प्रकार किसी दिए गए समाज या संस्कृति में, पुरुषत्व पुरुषों और लड़कों के अभिलक्षणों को दी गई सामाजिक परिभाषा है। जेंडर की ही तरह पुरुषत्व भी एक “सामाजिक निर्मिति’ है। अर्थात्‌ यह समाज ही है जो निर्धारित करता है कि पुरुषों और लड़कों को किस तरह के कपड़े पहनने चाहिए, किस तरह व्यवहार करना चाहिए, किस तरह कार्य करना चाहिए; उनके पास कौन-कौन सी अभिवृत्ति और गुण होने चाहिए तथा उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। अत: पुरुषत्व पुरुषों की तरफ से की जाने वाली सामाजिक–आर्थिक उम्मीदों (अपेक्षाओं) का एक ऐसा समुच्चय है, जो आज्ञा देता है कि उन्हें कैसा दिखना चाहिए, कैसा व्यवहार करना चाहिए, कैसे कमाना चाहिए आदि।

   किसी विशेष समाज से किसी दूसरे समाज में जाने पर पुरुषत्व में अन्तर आ जाता है। उदाहरण क॑ लिए, इंग्लैण्ड में एक पुरुष से अपने पुरुषत्व को व्यक्त करने की जैसी उम्मीद की जाती है, वह उस उम्मीद से अलग हो सकती है, जिस तरीके की उम्मीद किसी पुरुष से अपने पुरुषत्व को व्यक्त करने के लिए मिस्र या भारत में की जाती है। इस प्रकार, समय और भूगोल के सन्दर्भ में, पुरुषत्व स्थैतिक भी नहीं होता। और चूँकि अपनी जाति, वर्ग, नृजातीयता, प्रजाति और यहाँ तक कि यौन झुकावों में भी सभी पुरुष एक जैसे नहीं होते; अत: पुरुषत्व एक अखण्ड निर्मिति नहीं हो सकता। इसीलिए इसे ‘पुरुषत्वों’ के रूप में सन्दर्भित करना पड़ता है।

पुरुषत्व हमेशा स्थानीय होता है और परिवर्तन के अधीन होता है। जो चीज परिवर्तित नहीं होती, वह है पुरुष की शक्ति या पुरुष प्रधान विचारधारा का औचित्य बताना और उसे स्वाभाविक मानकर स्वीकार करते चले जाना।   आर्थर ब्रिहेन (कमला भसीन, 2004, में पृष्ठ 9 पर उद्धृत)    

पुरुषत्व की विपरीत निर्मिति यानी स्त्रीत्व पर निगाह डाले बिना पुरुषत्व को नहीं समझा जा सकता । हम कह सकते हैं कि एक महिला, लडकी वह है’ जो ‘एक पुरुष, लड़का नहीं है” और हम इसका उल्टा भी कह सकते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि पुरुषवाचक विशेषताएँ और गुण, स्त्रीवाचक विशेषताओं और गुणों के विपरीत रूप होते हैं। जैसाकि आपने उपरोक्त हिस्से में पढा है कि पुरुषत्व और स्त्रीत्व, दोनों का निर्धारण जीव-वैज्ञानिक रूप से नहीं होता, बल्कि ये सामाजिक निर्मितियाँ हैं। इस प्रकार जेंडर पहचानें सामाजिक-आर्थिक रूप से निर्धारित की जाती हैं। आइए, सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत पुरुषवाचक और स्त्रीवाचक विशेषताओं में से कुछ पर निगाह डालें –

जब हम उपरोक्त पुरुषवाचक और स्त्रीवाचक विशेषताओं को सामाजिक सम्बन्ध के दायरे में ले जाते हैं तो हम पाते हैं कि अगर एक पुरुष से आक्रामक, नियन्त्रणकर्ता और गर्म मिजाज होने की उम्मीद की जाती है; तो वहीं एक स्त्री से उम्मीद की जाती है कि वह विनम्र, कोमल, थैर्यवान और सीधी हो। इस प्रकार आप देखते हैं कि विशेषताओं के एक समुच्चय को कारगर होने के लिए यह जरूरी होगा कि विशेषताओं का दूसरा समुच्चय उन्हें स्वीकार करे। यानी अगर कोई व्यक्ति शासन करता है, तो किसी ऐसे व्यक्ति का होना आवश्यक है जिस पर शासन किया जाए और अगर एक श्रेष्ठ है तो दूसरे को घटिया होना ही चाहिए।

   बिल्कुल प्रारम्भिक अवस्था से ही बच्चे ऐसे सन्देश या संकेत प्राप्त करने लगते हैं, जो उनके व्यक्तित्त को लड़कों और लड़कियों के रूप में ढालते हैं। इसके अलावा जेंडरीकरण के एजेण्ट कहे जाने वाले बाहरी स्रोत भी होते हैं जो उन आदर्शों या मानकीय व्यवहारों या भूमिकाओं को उपलब्ध कराते हैं, जिनकी किसी दिए गए समाज में प्रत्येक सदस्य से उम्मीद की जाती है। समाज में परिवार और मित्र, विद्यालयों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों जैसी शैक्षणिक संस्थाएँ, मीडिया, धर्म और अन्य सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्थाएँ – ये सभी जेंडरीकरण क॑ एजेंट हैं। ये क्रमशः अपनी संस्कृति और समाज में पुरुषों और लड़कों के लिए पुरुषत्व की निर्मितियों को आकार प्रदान करते रहते हैं। किसी दी गई स्थिति या घटना के सन्दर्भ में समाज लड़कों /“ लड़कियों से अलग-अलग अभिवृत्तियों और व्यावहारिक प्रतिक्रियाओं की उम्मीद करता है जिससे जेंडरीकृत समाजीकरण को बढ़ावा मिलता है।

   परिवार आमतौर पर बच्चों को जेंडरीकृत तरीके से समाजीकृत करता है। परिवार बिना सोचे-समझे और सांस्कृतिक रूप से अपेक्षित परिणामों के अनुसरण में ऐसा करता है। उदाहरण के लिए, अधिकांश भारतीय घरों में लड़कों को बताया जाता है कि वे रोया न करें क्योंकि यह काम तो लड़कियों का है। लड़के अगर किसी गुड़िया के साथ खेलना चाहें या अपने माथे पर एक ‘बिन्दी’ लगा लें या अपनी माँ अथवा बहन की तरह चूड़ी पहन लें तो उनका उपहास उड़ाया जाता है। यहाँ तक कि जीवन के बिल्कुल प्रारम्भिक वर्षों से ही परिषार द्वारा लड़कों को पलटवार करने और बदला लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। किसी लड़ाई के दौरान मार खाने वाले पक्ष की तरफ होने या विपक्षी के सामने हार जाने की बजाय उन्हें पलट कर वार करना’ सिखाया जाता है। यह भी कि जीतने को प्रत्येक परिस्थिति के लक्ष्य के रूप में प्रोत्साहित किया जाता है ताकि चित्त पर प्रतिस्पर्दधा की छाप पड़े और किसी भी कीमत पर जीत को हासिल किया जाए।

   पुरुषत्व को किसी व्यक्ति की आयु, धर्म, जाति, वर्ग, प्रजाति, नृजातीयता और लैंगिकता (सेक्सुअलिटी) से भी आकार मिलता है। चूँकि पितृसत्ता असमानता और श्रेणीतन्त्रीय सामाजिक व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करती है, यह पुरुषों को श्रेष्ठतर मानती है। ऐसे पुरुषों को महिलाओं की तुलना में और उन पुरुषों की तुलना में ऊँचा स्थान दिया जाता है, जो अपनी पद-प्रतिष्ठा और हैसियत के कारण निम्नतर स्थिति में होते हैं। ऊँचे स्थान वाले ये पुरुष महिलाओं के साथ-साथ उन पुरुषों को भी आदेश देते हैं और उन पर नियन्त्रण रखते हैं, जो पद-प्रतिष्ठा और हैसियत में नीचे होते हैं। इस अर्थ में, पुरुषत्व की श्रेष्ठता को पितृसत्ता से भी समर्थन मिलता है क्योंकि पुरुषत्व न सिर्फ पुरुषों और महिलाओं के बीच के सम्बन्ध को परिभाषित करता है, बल्कि यह पुरुषों के बीच सम्बन्ध को भी परिभाषित करता है। यह भी देखा गया है कि अपने अधीनस्थों पर प्रमुखता बनाने के लिए सार्वजनिक जीवन में महिलाएँ भी कार्य करने या नेतृत्व करने के पुरुषवाचक तरीकों का अनुसरण करती हैं ताकि वे पुरुषों की तरह आक्रामकता और नियन्त्रण दर्शा सकें। एक धारणा (परसेप्शन) यह है कि महिलाएँ शक्ति की व्यवस्था का पुरुषत्वीकरण किए बिना सफल नहीं हो सकतीं | इससे यह सुझाव मिलता है कि हमें ‘पुरुषत्व और स्त्रीत्व” दोनों की अवधारणाएँ समझनी पड़ेंगी। और हमें इस तथ्य के प्रति भी सावधान रहना चाहिए कि ये निर्मितियाँ जीव-वैज्ञानिक नहीं हैं, बल्कि ये चेतना की संरचनाएँ हैं जो पुरुषों और महिलाओं दोनों, में उपस्थित हो सकती हैं।

पुरुषत्व की निर्मिति (रचना)

यह एक मिथक है कि पुरुषत्य जीव-वैज्ञानिक होता है, यानी अपने शरीर क्रिया विज्ञान के परिणामस्वरूप पुरुषों के पास पुरुषवाचक अभिलक्षण होते हैं या यह सब कुछ हार्मोनों का खेल होता है। तब हमें यह विश्वास करना पड़ेगा कि सभी पुरुष रोबदार, घमण्डी, आक्रामक, तुनकमिजाज / गर्ममिजाज और हिंसक होते हैं तथा उनमें से कोई भी पुरुष भिन्‍न नहीं हो सकता क्योंकि सभी की जीव-वैज्ञानिक रचना समान ही होती है। लेकिन हमें ऐसे पुरुष अवश्य मिलते हैं, जिनके भीतर इनमें से अनेक अभिलक्षण मौजूद नहीं होते। फिर सोचिए कि एक पुरुष जो अपनी पत्नी के सामने इतना रोबदार और हिंसक होता है, वही अपने मालिक (बॉस) के सामने क्‍यों इतना अधिक दीन-हीन और भगयग्रस्त हो जाता है। इससे साबित होता है कि पुरुष ठेठ पुरुषवाचक व्यवहार को वहीं वर्णित या रूपायित करते हैं, जहाँ उनके पास शक्ति और प्रभाव की हैसियत होती है अन्यथा वे अधीनस्थ स्थिति में होने पर तथाकथित स्त्रीवाचक गुणों’ के सामने घुटने टेक देते हैं। क्या इससे यह सिद्ध

नहीं होता कि पुरुषत्व और इस सन्दर्भ में स्त्रीत्व कोई जीव-वैज्ञानिक निर्मितियाँ नहीं हैं, बल्कि ये पुरुषों और स्त्रियों के बीच के सम्बन्धों को विनियमित करने वाले श्रेणीतन्त्र और शक्ति की गतिकी से शासित होती हैं।

2. श्रम्बल सहमागिता में जेंढर अंतरात और कार्यरथल पर महिलाओं से भेदभाव की चर्चा उदाहरण देते हुए कीजिए ।

उत्तर – जेंडर असमानता वर्तमान में न सिर्फ एक ज्वलन्त मुद्दा है, बल्कि नौकरियों, उत्पादकता, जीडीपी वृद्धि और असमानता के लिए इसके बहुत व्यापक असर हैं। समाज में व्याप्त जेंडर अन्तरालों को सम्बोधित किए बिना भारतीय महिलाओं की आर्थिक क्षमताओं को कार्यरूप प्रदान नहीं किया जा सकता। जीडीपी में महिलाओं के योगदान के हिस्से का वैश्विक औसत 37 प्रतिशत है। इसके मुकाबले भारत में जीडीपी में महिलाओं के योगदान का हिस्सा बहुत कम है और यह दुनिया के किसी भी भौगोलिक क्षेत्र की तुलना में सबसे कम है। भारत में अगर पुरुषों की ही तरह महिलाओं ने भी बाजार अर्थव्यवस्था के भुगतान वाले कार्यों में हिस्सा लिया होता, तो भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर दुनिया के सभी क्षेत्रों की तुलना में अधिक होती। इसके अलावा, हमारे यहाँ प्रत्येक क्षेत्र में श्रम बल सहभागिता की दरों, काम के घण्टों और प्रतिनिधित्व में मौजूद अन्तराल भी समाप्त हो गए होते। ये अन्तराल महिलाओं की उत्पादकता पर असर डालते हैं। पुरुषों के साथ बराबरी के स्तर पर आकर श्रम बाजार में सहभागी बनने के लिए महिलाओं के मार्ग में जो बाधाएँ मौजूद हैं, उन्हें एक निश्चित समय के भीतर पूरी तौर पर समाप्त करना मुश्किल है क्योंकि महिलाओं की यह सहभागिता अन्तत: उनके व्यक्तिगत चुनाव का मामला बन जाता है। कार्यस्थल पर महिलाओं की भूमिका को समाज में उनकी भूमिका से अलग करके नहीं देखा जा सकता (कृपया इसकी व्याख्या करें)। महिलाओं की आर्थिक क्षमताओं को साकार करने के लिए यह आवश्यक है कि कार्यक्षेत्र और सामाजिक क्षेत्र, दोनों, में जेंडर अन्तरालों को घटाया जाए क्‍योंकि एक क्षेत्र में समानता आने से दूसरे क्षेत्र में समानता का संचरण स्वत: होने लगता है।

   भारत के राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एन.एस.एस.ओ.) के सर्वेक्षणों के ऑकड़े इंगित करते हैं कि श्रम बल सहभागिता के मामले में शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में महिलाएँ पुरुषों से बहुत पीछे हैं। पन्द्रह वर्ष और इससे अधिक उम्र के लोगों के आँकड़ों के आधार पर देखें तो भारत में महिलाओं की श्रम बल सहभागिता दर शहरी इलाकों में सिर्फ 21 प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में 36 प्रतिशत है. जो कि पुरुषों की तुलना में बहुत कम है। पुरुषों के मामले में यह दर क्रमशः 76 और 81 प्रतिशत है (चौघरी एण्ड वेरिक, 2014) ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को मिलने वाले कुल रोजगार का लगभग 75 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में है जबकि पुरुषों के मामले में यह प्रतिशत 59 है। असंगठित क्षेत्र में भी पुरुषों के लिए नियोक्ता होने की सम्भावनाएँ अधिक होती हैं, जबकि महिलाओं के लिए ज्यादा सम्भावना इस बात की होती है कि वे दिहाड़ी मजदूर बन जाएँ या फिर गैर-भुगतान वाला कार्य करने के लिए परिवार में लगा दी जाएँ। पुरुषों के लिए विशाल उद्यमों का स्वामी होने की सम्भावना अधिक होती है और महिलाओं के लिए अगर किसी उद्यम का स्वामी होने की सम्भावना होती भी है, तो बस छोटे-मोटे उद्यमों का स्वामी होने की ही सम्भावना होती है। महिलाओं के हिस्से आमतौर पर हाथ से किए जा सकने वाले और अकुशल किस्म के काम आते हैं। स्वरोजगार करने वाली अधिकांश महिलाएँ घर- आधारित श्रमिक होती हैं यानी ऐसी श्रमिक कि उत्पादन तो वे बाजार के लिए करती हैं, लेकिन सारा काम वे अपने घरों में ही करती हैं। निर्धनता के प्रति खतरे का एक श्रेणीतन्त्र मौजूद है जो श्रम बल के बैटवारे से सम्बद्ध होता है। इसमें अधिकांश महिलाएँ रोजगार के ऐसे रूपों में संलग्न होती हैं. जिनके निर्धन हो जाने का खतरा बहुत अधिक होता है (चेन और अन्य, 2005)।

   वैश्विक जेंडर अन्तराल रिपोर्ट (2014) बड़े पैमाने पर व्याप्त इस धारणा को उदघाटित करती है कि समान काम के लिए महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम पारिश्रमिक मिलता है। राष्ट्रीय ग्रतिदर्श सर्वेक्षण (एनएसएसओ) के 68वें राउण्ड के व्यवसायवार मजदूरी—ऑकडों का विश्लेषण करने पर भारत में भी इस प्रवृत्ति की पुष्टि होती है। व्यावसाथिक स्तर कुछ भी हो, महिलाओं को अपने समान कार्य करने वाले पुरुषों की तुलना में औसतन 30 प्रतिशत कम पारिश्रमिक मिलता है।

   एनएसएसओ के ऑँकड़ों पर ध्यान देते हुए एमसी किन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट (एमसी किन्से वैश्विक संस्था) (एमजीआई, 2015) ने भारतीय महिलाओं के सन्दर्भ में नेतृत्व के मामले में एक जेंडर अन्तराल की पहचान की है। तृतीयक-शिक्षा प्राप्त महिलाओं में से केवल 7 प्रतिशत के पास वरिष्ठ अधिकारियों जैसी नौकरियाँ हैं, जबकि पुरुषों के मामले में यह प्रतिशत 14 है। इसी तरह समस्त व्यावसायिक तकनीकी नौकरियों में से महिलाओं का हिस्सा केवल 38 प्रतिशत है। भारत में कम्पनियों के मण्डल में महिलाओं का हिस्सा महज 5 प्रतिशत ही है। इसका तात्पर्य यह है कि देश में सूचीबद्ध 9000 कम्पनियों में सिर्फ 400 महिलाएँ ही ऐसी हैं जो बोर्ड की सदस्य हैं। सम्भव है कि ये आँकड़े वस्तुस्थिति को सही रूप में चित्रित न कर पा रहे हों क्योंकि इन 400 महिलाओं में से 200 महिलाएँ तो ऐसी हैं, जो अपने परिवारों के स्वामित्व वाली कम्पनियों से सम्बन्धित हैं। इसलिए उन महिलाओं की संख्या जिन्होंने सचमुच ये सीढ़ी चढ़ी है, बहुत ही निराशाजनक स्तर तक कम है (इकोनॉमिक टाइम्स, 2010)।

   सन्‌ 2014 में भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कम्पनियों को निर्देश दिया था कि उसी साल के अक्टूबर माह तक वे अपने बोर्ड में कम से कम एक महिला निदेशक को नियुक्त करें। बोर्ड में अनिवार्य रूप से एक महिला सदस्य की उपस्थिति के कारण महिला-केन्द्रित नीतियों को लागू करने के लिए निश्चित ही बल मिलेगा। हालाँकि, अप्रैल, 2015 तक 200 से अधिक कम्पनियाँ सेबी के इन निर्देशों का पालन नहीं कर पायीं थीं और फलस्वरूप उन कम्पनियों पर दण्डस्वरूप जुर्माने भी लगाए गए। इससे महिलाओं के कार्यों की क्षमताओं के बारे में एक सामान्य प्रवृत्ति का पता चलता है (रुचिरा सिंह, 2015)।

   महिलाओं की भूमिका कं बारे में सामाजिक प्रवृत्तियों को रेखांकित करना, यकीनन, कुछ ऐसी बाधाओं से जुड़ा हुआ काम है, जिनका सामना भारतीय महिलाओं को करना पड़ता है। एमजीआई (2015) ने पाया कि किसी दिए गए भौगोलिक क्षेत्र में महिलाओं की क्षमताओं को सीमित करने वाली प्रवृत्तियों और वास्तविक जेंडर समानता के परिणामों के बीच बहुत मजबूत सम्बन्ध-सेतु (1८) होता है। उदाहरण के लिए, सर्वेक्षण में, चाहे वे महिला हों या पुरुष, उत्तर देने वाले लोगों से यह पूछा गया कि क्‍या वे निम्नलिखित कथनों से सहमत

हैं: “जब नौकरियों की संख्या कम है, तो महिलाओं की तुलना में पुरुषों को नौकरी हासिल करने का अधिकार अधिक होना चाहिए” तथा “जब वेतन के लिए कोई माँ कार्य करती है, तो उसके बच्चों को परेशानियाँ उठानी चाहिए”। भारत में, उत्तर देने वाले लोगों में से आधे से अधिक लोगों ने इन दोनों से कथनों से अपनी सहमति दर्ज की। श्रम बल में महिलाओं की सहभागिता दर के मामले में भारत की स्थिति दुनिया के उन देशों में शुमार है, जहाँ यह दर न्यूनतम है।

कार्य (कार्यस्थल) में जेंडर भेदभाव

धमकियों के रूप में तथा शारीरिक और मौखिक-अमौखिक रूप में दुर्वुयवहार की शक्ल में कार्यस्थल पर की जाने वाली हिंसा या व्यावसायिक हिंसा भी बहुत सारी श्रमिकों के लिए चिन्ता का एक विषय है। यौन उत्पीड़न का अपराध अनेक लोगों द्वारा किया जा सकता है, जिसमें शामिल हैं – नियोक्ता, कर्मचारी, ठेकेदार और ग्राहक। अपराध का यह कार्य बहुत बारीक, सूक्ष्म, अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष हो सकता है, तथा यह इरादतन या गैर-इरादतन किया गया हो सकता है। उत्पीड़न का प्रकार कुछ भी हो सकता है – हो सकता है कि सत्ता या हैसियत के कारण यह उत्पीड़न किया गया हो या हो सकता है कि ऐसा उत्पीड़न साथ-साथ काम करने वाले कर्मचारियों और सम्बद्ध लोगों के बीच घटित हुआ हो या हो सकता है कि सलाहकारों, ग्राहकों और जनसमुदाय के सदस्यों के प्रति व्यवहार करते समय ऐसे उत्पीड़न को अंजाम दिया गया हो। ऐसी स्थितियों में जबकि नौकरियों की संख्या बहुत कम है और बहुत सारी युवा लड़कियाँ काम खोजने के प्रयास करती रहती है तब लड़कियों को काम दिलाने या किसी नौकरी में उन्हें भर्ती कराने के नाम पर उनका यौन उत्पीड़न करना बहुत आम बात हो सकती है। और यौन उत्पीड़न की यह बात यहीं रुक नहीं जाती | इसमें शिक्षण और प्रशिक्षण संस्थानों में काम कर रही महिलाएँ., घरेलू महिला श्रमिक, विस्थापित मजदूर, नौकरी की अल्प सुरक्षा वाली मजदूर महिलाएँ तथा ऐसी महिलाएँ भी शामिल हैं जिनकी संख्या बहुत अधिक होती है, लेकिन जिनकी निगरानी पुरुषों की बहुत कम संख्या द्वारा की जाती है।

   महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध की जाने वाली हिंसा का एक अन्य रूप मानक-अवैध व्यापार भी है। अवैध होने के बावजूद यह पूरी दुनिया में बहुत लाभदायक व्यवसाय (बिजनेस) के रूप में विद्यमान है। 118 देशों में सन्‌ 2007 से 2010 के बीच 136 राष्ट्रीयवाओं से आने वाले इस अवैध व्यापार के शिकार लोगों की पहचान की गई थी। शिकार से पीड़ित इन सभी लोगों में से करीब 55-60 प्रतिशत लोग महिलाएँ ही थीं। इन महिलाओं में से अधिकांश का अवैध व्यापार या तो यौन-शोषण के लिए किया जा रह्चा था या फिर बँधुआ मजदूरी कराने के लिए। भुगतान करके कराए जाने वाले घरेलू कामों के सन्दर्भ में ऐसा शोषण बहुत आम बात है, खासकर विकासशील देशों में ऐसा काम करने वाली विस्थापित महिला श्रमिकों के मामले में तो यह और भी सुमेद्य हो जाता है। लोगों के घरों में किया गया इस प्रकार का शोषण श्रम कानूनों के दायरों से अक्सर बाहर ही रह जाता है। नियोक्ता कम पारिश्रमिक देने या फिर कोई भी पारिश्रमिक न देने के लिए धमकी और बल प्रयोग का सहारा लेते हैं। वे घरेलू श्रमिकों को सप्ताह में कोई छुट्टी दिए बगैर, दिन भर में अठारह घण्टों तक लम्बे-लम्बे काम करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। ऐसा करने से सामाजिक परस्पर क्रिया करने के लिए इन श्रमिकों के पास बहुत ही कम क्षमता और बहुत ही कम समय बचता है। कार्य की दशाएँ अक्सर बहुत खराब होती हैं, श्रमिकों को भरपेट भोजन भी नहीं मिलता और किसी प्रकार की चिकित्सकीय सहायता तक उनकी कोई पहुँच भी नहीं होती। बहुत सम्भव है कि घरेलू कामकाज करने वाले वाली श्रमिकों पर शारीरिक या यौनिक अत्याचार भी किए जाते हों। और इन सबके बावजूद घरेलू कामकाज करने वाले बहुत सारे श्रमिकों को इन अत्याचारों को सहते हुए, अत्याचारी नियोक्ताओं के साथ काम करना पड़ता है क्योंकि उन्हें अपने परिवार को सहारा देने के लिए काम करने की जरूरत होती ही है।

भाग – ख

3. मारतीय संदर्भ में वर्ग विभाजन और ग्रामीण-शहरी द्विभाजन में मातृत्व की श्रेणियों का वर्णन कीजिए।

उत्तर – जिस तरीके से मातृत्व को संकल्पनाबद्ध किया जाता है और जिस तरीके से उसे अनुभव किया जाता है; वह अक्सर ही वर्ग, जाति और नृजातीयता जैसी वृह्त्तर ताकतों द्वारा प्रभावित होता है। भारतीय समाज के पितृसत्तात्मक स्वरूप के कारण भारतीय सन्दर्भों में मातृत्व का निर्धारण बहुत हद तक इन ताकतों की अनुप्रस्थ काट के द्वारा होता है। भूमण्डलीकरण और आर्थिक उदारीकरण के प्रभाव ने समकालीन शहरी भारत में एक जटिल वर्गीय श्रेणीतन्त्र पैदा कर दिया है। इस श्रेणीतन्त्र में प्रत्येक वर्ग अपने से ऊपर वाले वर्ग की तरफ जाने की आकांक्षा रखता है। पितृसला और पूँजीवाद के साथ-साथ होने का परिणाम यह हुआ है कि उपमभोक्तावाद की एक संस्कृति उभरी है, जो नारी-देह के और अधिक वस्तुकरण को बढ़ावा देती है। मातृत्वपरक शरीर के लिए इसके विशिष्ट प्रभाव हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, मातृत्वपरक शरीर को महत्व या मूल्य इसलिए प्रदान किया जाएगा क्योंकि यह पितृसत्तात्मक संस्कृति के लिए कुछ प्रदान करेगा – यह एक सन्तान, प्राथमिक रूप से एक बालक शिशु, प्रदान करने का आश्वासन देगा जो आगे चलकर पितृवंशीय समाज को बनाए रखने की प्रक्रिया को सुनिश्चित करना जारी रखेगा। इस प्रकार मातृत्वपरक शरीर अपने प्रजनन कार्यों तक संकुचित हो जाता है और प्राथमिक रूप से इस शरीर की पहचान उसकी कोख को एक बर्तन या कण्टेनर के रूप में देखते हुए की जाती है। हालाँकि, इस प्रक्रिया में प्रजननमूलक कार्य को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है, लेकिन इसी के कारण मातृत्वपरक शरीर को विलैंगीकृत भी कर दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, ऐसी देह की कल्पना एक पवित्र माँ के रूप में की जाती है. न कि एक प्रेमिका या एक यौन साथी के रूप में। इसी प्रकार, गैर-मातृत्वपरक किन्तु लैंगीकृत नारी देह का अवमूल्यन किया जाता है क्‍योंकि इसे प्राथमिक रूप से सिर्फ एक यौनिक वस्तु के रूप में ही देखा-समझा जाता है। इन दोनों मामलों में महिला और माँ का व्यक्तिपन फीका बन जाता है क्‍योंकि ‘प्रजनक’ के रूप में या ‘यौनिक वस्तु’ के रूप में उसके कार्य को उसकी किसी भी अन्य प्रकार की पहचान पर भारी बना दिया जाता है। इस प्रकार पितृसत्तात्मक समाजों में महिलाओं को जीवन में महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए कर्ता के रूप में बहुत संघर्ष करना पड़ सकता है – ये ऐसे निर्णय होते हैं जो अक्सर पुरुष सदस्यों द्वारा लिए जाते हैं; जैसे- पतियों द्वारा, पिताओं द्वारा, भाइयों द्वारा, या वृहत्तर पितृसत्तात्मक परिवार द्वारा।

    अलग-अलग वर्गों, जातियों के लिए तथा शहरी / ग्रामीण विभाजन के आर-पार रहने वाली महिलाओं क॑ लिए इन प्रभावों क॑ असर विशिष्ट होते हैं। उदाहरण के लिए, शहरी मध्य वर्गों में माताओं के रूप में अपनी भूमिकाओं में महिलाओं से यह उम्मीद की जाती है कि वे पारम्परिक पारिवारिक मूल्यों को बचाएँ और उन्हें आगे बढ़ाएँ तथा अपनी सनन्‍्तानों में उन मूल्यों का संचार करें, चाहे इन मूल्यों में से कुछ ऐसे ही क्‍यों न हों जो लड़कियों और महिलाओं के बारे में लैँंगिक अवमान करने वाले विचारों को बढ़ावा देते हों। इनमें पतियों के प्रति महिलाओं और पुत्रियों की अधीनता, या अपने सास-ससुर के प्रति पत्नियों की दासता जैसे मूल्य शामिल हो सकते हैं। माताओं से अक्सर यह उम्मीद भी की जाती है कि वे अपनी पुत्रियों में समझौता करने की भावना का विकास करें तथा उनमें कठिन परिस्थितियों में ‘समायोजन’ करने की योग्यता को बढ़ावा दें | इनमें खासकर ऐसे मूल्यों का विकास करना शामिल है, जो पुत्रियों को यह सिखाते हों कि वे पुरुष सदस्यों के सुख-कल्याण के सामने अपने सुख-कल्याण को पीछे रखा करें। यह अपने भाई या पिता के लिए महिलाओं द्वारा अपने सबसे प्रिय भोजन के हिस्से का परित्याग करने जैसी बहुत मामूली चीज भी हो सकती है, या फिर विरासत में मिली सम्पत्ति पर अपने भाइयों का प्रथम अधिकार मानते हुए बहनों द्वारा सम्पत्ति के अधिकारों को चुपचाप त्यागने जैसी बहुत महत्वपूर्ण चीज भी हो सकती है। माताएँ जब ऐसे मूल्यों को आदर्श व्यवहार’ बताते हुए अपनी पुत्रियों में उनका संचार करती हैं, तब वे महिलाओं और माताओं की ऐसी भावी पीढ़ियाँ तैयार कर रही होती हैं, जो जेंडर श्रेणीतन्त्रों में उलझी हुई ही रह जाएगी।

   ग्रामीण महिलाओं के मामले में मातृत्व अक्सर माताओं और उनकी सन्‍्तान के जीवन पर बहुत बड़े खतरे की कीमत पर आता है। गरीबी का तथा उचित स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव का परिणाम अनचाहे गर्भधारण तथा माताओं और शिशुओं की उच्च मृत्यु दर के रूप में सामने आता है। 2011 के जनसंख्या आँकड़ों के अनुसार भारत में प्रति एक हजार पुरुषों पर लिंगानुपात मात्र 943 ही है। 2011-2013 के आँकड़ों के मुताबिक मातृत्व मृत्यु दर 167 है। इसके अतिरिक्त छोटे बच्चों की देखभाल करना एक ऐसी जिम्मेदारी है, जिसका निर्वहन खेतों, घरों या कारखानों में काम करने की अत्यावश्यक जरूरत के साथ-साथ करना पड़ता है। ग्रामीण महिलाएँ अपने तथा अपनी सनन्‍्तानों के पोषण, स्वास्थ्य और शिक्षा की बुनियादी जरूरतों के लिए अनेक चुनौतियों का सामना करती हैं और इन सबके लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ता है। शिक्षा और आर्थिक संसाधनों के अभाव के कारण गर्भनिरोधक साधनों तक उनकी पहुँच नहीं होती। इसका परिणाम यह होता है कि अपने स्वास्थ्य को खतरे में डालते हुए उन्हें अवांछित गर्भधारण करना पड़ सकता है या वे ऐसे निर्णय लेने के योग्य नहीं हो सकतीं कि उन्हें कितने बच्चे पैदा करने चाहिए | कृषि क्षेत्र में काम करने वाली अनेक ग्रामीण महिलाएँ घर के बाहर और भीतर दोनों जगह काम करती हैं। हालाँकि, इस काम काम का अधिकांश हिस्सा जेंडर पूर्वाग्रहों के कारण अनदेखा ही रह जाता है। 2011 के जनसंख्या आँकड़ों के मुताबिक ग्रामीण महिलाओं के कार्यशील घण्टे (निजी और सार्वजनिक क्षेत्र दोनों – घर और कृषि क्षेत्र) 25.6 हैं तथा पुरुषों के मामले में यह 51.7 है।

   खासतौर पर ग्रामीण विस्थापित महिलाओं क्रो मातृत्व की जिम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए बहुत ही कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। आपने ध्यान दिया होगा कि ऐसी महिलाएँ इमारतों आदि के निर्माण स्थल पर कार्य करती हैं। इन निर्माण स्थलों के आसपास ही इनके नवजात शिशु और बहुत छोटे-छोटे बच्चे खतरनाक स्थितियों में असुरक्षित तरीके से अपनी देखभाल स्वयं करने के लिए छोड़ दिए गए होते हैं। शहरी और ग्रामीण दोनों प्रकार की व्यवस्थाओं में इन गरीब महिलाओं के पास यह विकल्प नहीं होता कि वे अपने

बच्चों को सुरक्षा, पोषण और शिक्षा की सुविधाएँ मुहैया करा सकें | अनेक विस्थापित ग्रामीण महिलाओं को मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के शहरी लोगों के घरों में साफ-सफाई या चौका-बर्तन करने आदि का काम मिल जाता है। तब भी, जबकि ऐसी महिलाएँ बच्चों की देखरेख और ‘ममत्व’ का कार्य करती हैं। जातिगत और वर्गगत विभाजनों को लगभग हमेशा ही कायम रखा जाता है। अपने स्वयं के बच्चों को पालने के सन्दर्भ में अनेक ग्रामीण और गरीब महिलाओं को गम्भीर आर्थिक अभावों का सामना करना पड़ता है। जैसाकि आप देख सकते हैं, मातृत्व जाति और वर्ग से उपजे जटिल दमनचक्र के भीतर गुँथा होता है, जो इन महिलाओं की जिन्दगियों को परिभाषित करता है।

   इस प्रकार विभिन्‍न वर्गों और जातियों की शहरी और ग्रामीण महिलाओं पर ज़रा-सी निगाह डालने भर से यह पता चल जाता है, जबकि वर्गों के आर-पार महिलाओं को घरेलू और आर्थिक जिम्मेदारियों का भार अपने कन्धों पर उठाना पड़ता है। एक संस्था के रूप में मातृत्व का निर्धारण पितृसत्तात्मक ताकतों द्वारा होता है। ये ताकतें महिलाओं की बहुसंख्या के नियन्त्रण के बाहर होती हैं।

4. विवाह संबंधी नारीवादी स्लिद्धांतों की चर्चा कीजिए।

उत्तर – दुनिया भर में होने वाले तमाम नारीवादी शोधों ने प्रदर्शित किया है कि महिलाएँ घरेलू कार्यों और लालन-पालन से सम्बन्धित कार्यों का अधिकांश हिस्सा खुद निबटाती हैं. जिसे किसी भी तरह के उत्पादक श्रम की मान्यता नहीं मिलती और न ही उसका कोई बाजार मूल्यहोता है।

   महिलाओं का समाजीकरण इस तरह से किया जाता है कि विवाह में वे स्त्रैण घरेलू भूमिकाओं को स्वयं स्वीकार करती हैं और इसी आधार पर उन्हें अच्छी’ और ‘आदरणीय’ पत्नी का दर्जा दिया जाता है।

   इसके साथ ही यदि महिलाएँ पुरुषों की तरह कार्य करने के लिए घर से बाहर भी जाती हैं तो उन्हें अपेक्षाकृत बहुत ही कम मजदूरी का भुगतान किया जाता है। दरअसल विवाह और परिवार के “निजी: क्षेत्रों में और मजदूरी वाले कार्यों जैसे “सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की अधीनस्थता में एक सातत्यता दिखती है। इसके अतिरिक्त शोध यह भी दिखलाते हैं कि यद्यपि महिलाएँ बिल्कुल पुरुषों वाली परिस्थिति में ही बाहर जाकर कार्य करती हैं, तो भी उन्हें घरेलू कार्यों के बोझ से “द्वित्तीय पाली” के काम की तरह जूझना पड़ता है। इसमें एक शिफ्ट तो ऑफिस के कार्यों का होता है, और दूसरा घर और परिवार की देखभाल करने के लिए घरेलू कार्य करने का।

   अध्ययनों को आधार बनाते हुए नारीवादी विद्वान तर्क देते हैं कि विवाह में किसी भी प्रकार से श्रम के जेंडर विभाजन की वकालत करना अपनी समग्रता में महिलाओं की स्थिति को नुकसान पहुँचाता है। ऐसी वकालत महिलाओं के विकल्पों और महत्वाकांक्षाओं को सीमित कर देती है। महिलाओं को केवल घरेलू दायरे में कैद कर देना और घरेलू कार्यों का अनन्य बोझ केवल उन्हीं पर डाल देना और श्रम का जेंडर विभाजन महिलाओं के विकल्पों और जीवन अवसरों को सीमित करता है।

   धीरे-धीरे महिलाएँ अपने आत्मविश्वास को कतरते हुए आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से पुरुषों पर निर्भर हो जाती हैं और भेदभाव तथा हिंसा सहने के लिए मजबूर हो जाती हैं। इस प्रकार श्रम का जेंडर विभाजन प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से विवाह में महिलाओं को अधीनस्थता की भूमिका लेने के लिए मजबूर कर देता है।

   नारीवाद की विभिन्‍न धाराओं के बीच मार्कसवादी नारीवादी तर्क देते हैं कि एकल विवाह एक सामाजिक संस्था भर है जिनका प्रेम से कोई लेना-देना नहीं होता बल्कि मात्र निजी सम्पत्ति के लिए सबकुछ किया जाता है। इस प्रकार विवाह पूँजीवादी वर्ग को लाभ पहुँचाता है और विवाह में महिलाओं की अधीनस्थ स्थिति से छुटकारा केवल विवाह को नकार कर ही मिल सकता है। यह निजी सम्पत्ति की रची-रचाई शोषक प्रणाली है।

   उग्र (अतिवादी) नारीवादियों के लिए विवाह पितृसत्ता का औजार (उपकरण) है जिसके विषमलैंगिक मानक द्वारा महिलाओं को अधीनस्थ बनाए रखा जाता है। पितृसला, सामाजिक शोषण का प्राथमिक रूप है। पितृसत्ता की इस प्रणाली में एक समूह के रूप में पुरुष महिलाओं पर सत्ता बनाए रखता है। सत्ता या ताकत पुरुषों के साथ होती है (एबॉट 2005)। सार रूप में, नारीवादी विद्वान विवाह को किसी समतावादी, समरसतावादी संस्था की तरह नहीं देखते हैं बल्कि ऐसी संस्था के रूप में देखते हैं जो अन्तर्विरोधों के भार से लदी रहती है। नारीवादियों के अनुसार विवाह एक पदसोपानिक संस्था है, जहाँ महिलाओं को द्वित्तीयक ओहदा दिया गया है। श्रम का जेंडर विभाजन, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था, अवैतनिक घरेलू कार्य, सवेतन कार्यों में असमान मजदूरी प्रणाली, विषमलैंगिक मानक, महिलाओं की यौनिकता (सेक्सुअलिटी) पर नियन्त्रण, स्त्रीत्व और पुरुषत्व का स्तुतिगान, हिंसा, असमान सम्पत्ति एवं अन्य अधिकार के साथ साथ भेदभावमभूलक कानून विवाह को एक असमान शोषक संस्था बना देते हैं।

5. जेंडर और भाषा के सबंध का वर्णन कीजिए।

उत्तर – भाषा और जेंडरके बीच कई संभावित संबंधों, चौराहों और तनावों में अनुसंधान विविध है। यह अनुशासनात्मक सीमाओं को पार करता है, और, एक नंगे न्यूनतम के रूप में, लागू भाषाविज्ञान, भाषाई नृविज्ञान, वार्तालाप विश्लेषण, सांस्कृतिक अध्ययन, नारीवादी मीडिया अध्ययन, नारीवादी मनोविज्ञान, लिंग अध्ययन, अंतःक्रियात्मक समाजशास्त्र, भाषाविज्ञान, मध्यस्थता शैली में मध्यस्थता से काम करने के लिए कहा जा सकता है।    पद्धति के संदर्भ में, एक भी दृष्टिकोण नहीं है जिसे ‘क्षेत्र को धारण करने’ के लिए कहा जा सकता है। सुसान स्पीयर ने अलग-अलग, और अक्सर प्रतिस्पर्धी, सैद्धांतिक और राजनीतिक मान्यताओं के बारे में जो बताया है, वह भाषा और लिंग के अध्ययन, उत्पादन और पुनरुत्पादन के दौरान कार्रवाई में दिखाई देता है। जिस तरह से प्रवचन, विचारधारा और लिंग पहचान की कल्पना और समझ होनी चाहिए ‘। नतीजतन, इस क्षेत्र में अनुसंधान को शायद सबसे उपयोगी रूप से अध्ययन के दो मुख्य क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है: पहला, एक विशेष लिंग से जुड़े भाषण की किस्मों में एक व्यापक और निरंतर रुचि है; सामाजिक मानदंडों और सम्मेलनों में एक संबंधित रुचि भी है जो (फिर से) लिंग भाषा का उपयोग (भाषण की एक किस्म, या किसी विशेष लिंग से जुड़े सामाजिककरण जिसे कभी-कभी एक लिंग कहा जाता है) का उत्पादन करता है। दूसरा, ऐसे अध्ययन हैं जो भाषा लिंगवाद और लिंग पूर्वाग्रह का उत्पादन और रखरखाव कर सकते हैं, और ऐसे अध्ययन जो प्रासंगिक रूप से विशिष्ट और स्थानीय रूप से स्थित तरीकों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जिसमें लिंग का निर्माण और संचालन होता है। इस अर्थ में, शोधकर्ता यह समझने की कोशिश करते हैं कि भाषा समाज में लैंगिक बाइनरी को कैसे प्रभावित करती है और यह पुरुष-महिला विभाजन को बनाने और समर्थन करने में कैसे मदद करती है।

   समाजशास्त्र और लिंग के अध्ययन में लिंग और भाषा के अध्ययन को अक्सर रॉबिन लाकॉफ की 1975 की पुस्तक, लैंग्वेज एंड वूमन प्लेस, और साथ ही लाकॉफ द्वारा कुछ पूर्व अध्ययनों के साथ शुरू किया गया है। भाषा और लिंग का अध्ययन 1970 के दशक से बहुत विकसित हुआ है। प्रमुख विद्वानों में डेबोराह टैनन, पेनेलोप एकर्ट, जेनेट होम्स, मैरी बुचोल्ट्ज़, किरा हॉल, डेबोरा कैमरन, जेन सुंदरलैंड और अन्य शामिल हैं। 1995 में संपादित मात्रा लिंग स्पष्ट: भाषा और सामाजिक रूप से निर्मित स्व को अक्सर भाषा और लिंग पर एक केंद्रीय पाठ के रूप में संदर्भित किया जाता है।

   भाषा और लिंग की धारणा पर प्रारंभिक अध्ययन भाषा विज्ञान, नारीवादी सिद्धांत और राजनीतिक अभ्यास के क्षेत्र में संयुक्त हैं। 1970 और 1980 के दशक के नारीवादी आंदोलन ने भाषा और लिंग के बीच संबंधों पर शोध करना शुरू किया। ये शोध महिला मुक्ति आंदोलन से संबंधित थे, और उनका लक्ष्य भाषा के उपयोग और लिंग विषमता के बीच संबंध की खोज करना था। चूंकि, नारीवादी उन तरीकों पर काम कर रहे हैं जो भाषा मौजूदा पितृसत्ता और लिंगवाद को बनाए रख रही है। भाषा और लिंग के अध्ययन में दो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। उनमें से एक भाषा में लिंग पूर्वाग्रह की उपस्थिति के बारे में है, और दूसरा एक भाषा का उपयोग करते समय लिंग के बीच अंतर के बारे में है। हालाँकि, इन दो प्रश्नों ने क्षेत्र को दो अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित किया है।

   इन अध्ययनों में सबसे उत्कृष्ट भावनाओं में से एक शक्ति की अवधारणा है। शोधकर्ता भाषा के पैटर्न को समझने की कोशिश कर रहे हैं कि यह कैसे समाज में शक्ति असंतुलन को दर्शा सकता है। उनमें से कुछ का मानना ​​है कि पुरुषों के सामाजिक लाभ हैं जो भाषा के पुरुषों के उपयोग में देखे जा सकते हैं। इसके अलावा, उनमें से कुछ का मानना ​​है कि समाज में महिलाओं के नुकसान हैं जो भाषा में परिलक्षित होते हैं। [think] रॉबिन लैकॉफ़, जिनकी पुस्तक “भाषा और महिला का स्थान” इस क्षेत्र में पहला आधिकारिक शोध है, ने एक बार तर्क दिया था कि: “महिलाओं की सीमांतता और शक्तिहीनता दोनों तरीकों से परिलक्षित होती है, पुरुषों और महिलाओं के बोलने के तरीके और महिलाओं के तरीके की बात की जाती है। ” उदाहरण के लिए, कुछ नारीवादी भाषा शोधकर्ताओं ने यह खोजने की कोशिश की है कि भाषा में पुरुषों के फायदे कैसे प्रकट हुए हैं। वे तर्क देते हैं कि कैसे, अतीत में, दार्शनिकों, राजनेताओं, व्याकरणविदों, भाषाविदों और अन्य ऐसे लोग थे, जिनका भाषा पर नियंत्रण था, इसलिए उन्होंने अपने वर्चस्व को विनियमित करने के साधन के रूप में उसमें अपने यौनवादी विचारों को दर्ज किया। इसलिए, यह क्षेत्र उन तरीकों की तलाश कर रहा है, जो भाषा समाज में असमानता और सेक्सवाद में योगदान कर सकती है।

भाग – ग

6. जेंडर और अक्षमता पर अपने अध्ययन की’ प्रस्तुति कीजिए ।

उत्तर – जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, दिव्यांग महिलाओं की दुर्दशा दिव्यांग पुरुषों की तुलना में बहुत ही अधिक होती है क्योंकि उन्हें पुरुष प्रधान समाज में एक महिला के रुप में तथा स्वस्थ शरीर को ही आदर्श समझने वाली दुनिया में दिव्यांग बनकर रहना पड़ता है। दिव्यांगता को लेकर दिव्यांग व्यक्ति का अपना अनुभव कैसा होता है और किस तरह उसे अन्य लोग महसूस करते हैं, यह बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि दिव्यांग व्यक्ति पुरुष है या महिला । उदाहरण के लिए, मिशेल फाइन तथा एडेरीने एश ने इस तरफ ध्यान दिलाया है कि दिव्यांग महिलाओं को “स्तम्भविहीन लिंगभेद  का अनुभव करना पड़ता है यानी उन्हें दोहरा नुकसान उठाना पड़ता है। न केवल वे दिव्यांगता के कारण भेदभाव का शिकार होती हैं अपितु वे लैंगिक भेदभाव का भी सामना करती हैं। इसके अतिरिक्त, गैर-दिव्यांग महिलाएँ माँ या पत्नी के रूप में जो दावा कर सकती हैं, उस दावे तक दिव्यांग महिलाओं की पहुँच भी नहीं बन पाती। दिव्यांग पुरुष भी अपने पुरुषत्य के लिए उसी प्रकार की प्रताड़ना झेलते हैं और उन्हें इस कारण शर्मिंदा होना पड़ सकता है कि वे पर्याप्त रूप से पुरुष’ नहीं हैं या परिवार के ऊपर निर्भर हैं और एक बोझ बन गए हैं। यह उनके आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुँचा सकता है क्योंकि पारम्परिक रुप से पुरुषों से यह अपेक्षा की जाती रही है कि वे घर में सभी सुविधाएँ जुटाएँगे तथा परिवार के मुख्य नीति-निर्णयकर्ता होंगे।

   जैसा कि पहले बताया गया है, 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में दिव्यांग महिलाओं की संख्या 4.1 करोड़ है, जो जनसंख्या का लगभग 4 प्रतिशत है। कुछ शोध बताते हैं कि भारत में दिव्यांग महिलाओं की संख्या 3.5 करोड़ से अधिक है (बैक्यर एवं शर्मा, 1997)। कुछ अन्य शोध इस संख्या को 2 करोड़ बताते हैं। दिव्यांगों में से 98 प्रतिशत निरक्षर हैं और 1 प्रतिशत से भी कम दिव्यांग स्वास्थ्य और पुनर्वास सेवाओं को हासिल कर सकते हैं (एक्शन एड, 2003, पृष्ठ 15) किन्तु जब हम दिव्यांगों के जीवन का अंग बन चुकी उपेक्षा, अलगाव बोध, लांछन तथा वंचित होने को लेकर सोचते हैं, तो यह अहसास होता है कि ये गणनाएँ तो विशाल हिमखण्ड के एक सिरे जितनी ही हैं। भारत में अधिकांश दिव्यांग महिलाएं तिहरे भेदभाव का शिकार होती हैं : महिला होने के कारण, दिव्यांग होने के कारण तथा गरीब होने के कारण।

7. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के संदध में आपके द्वारा हाल ही में पठित किसी भी केस अध्ययन की प्रस्तुति अपने शब्दों में कीजिए।

उत्तर – विधार्थी इसका उत्तर स्वयं करें|

8. लोक एवं निजी दायरों को जेंडरपरक परिप्रेश्यों से परिमाषित कीजिए ।

उत्तर – सार्वजनिक क्षेत्र सामाजिक जीवन में एक ऐसा क्षेत्र है जहां व्यक्ति सामाजिक समस्याओं पर स्वतंत्र रूप से चर्चा करने और उनकी पहचान करने के लिए एक साथ आ सकते हैं, और उस चर्चा के माध्यम से राजनीतिक कार्रवाई प्रभावित होती है। इस तरह की चर्चा को सार्वजनिक बहस कहा जाता है और इसे उन मामलों पर विचारों की अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है जो जनता के लिए चिंता का विषय हैं- अक्सर, लेकिन हमेशा नहीं, विरोध या विचार-विमर्श में प्रतिभागियों द्वारा व्यक्त किए गए विचारों को बदलने के साथ। सार्वजनिक बहस ज्यादातर जन माध्यमों के माध्यम से होती है, लेकिन बैठकों में या सोशल मीडिया, अकादमिक प्रकाशनों और सरकारी नीति दस्तावेजों के माध्यम से भी होती है। यह शब्द मूल रूप से जर्मन दार्शनिक जुरगेन हेबरमास द्वारा गढ़ा गया था, जिन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र को “निजी लोगों से मिलकर एक सार्वजनिक के रूप में इकट्ठा किया और राज्य के साथ समाज की जरूरतों को रेखांकित किया”। संचार विद्वान जेरार्ड ए। हॉसर ने इसे “एक विवेकशील स्थान के रूप में परिभाषित किया है जिसमें व्यक्ति और समूह आपसी हित के मामलों पर चर्चा करने के लिए और जहां संभव हो, उनके बारे में एक सामान्य निर्णय तक पहुंचने के लिए सहयोगी हैं”। सार्वजनिक क्षेत्र को “आधुनिक समाजों में एक थिएटर जिसमें राजनीतिक भागीदारी को बातचीत के माध्यम से” और “सामाजिक जीवन का एक क्षेत्र जिसमें सार्वजनिक राय बनाई जा सकती है” के रूप में देखा जा सकता है।

   निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र का पूरक या विपरीत है। निजी क्षेत्र सामाजिक जीवन का एक निश्चित क्षेत्र है जिसमें कोई व्यक्ति सरकारी या अन्य संस्थानों के हस्तक्षेप से अप्रभावित प्राधिकरण की एक डिग्री प्राप्त करता है। निजी क्षेत्र के उदाहरण परिवार और घर हैं।

   सार्वजनिक क्षेत्र के सिद्धांत में, बुर्जुआ मॉडल पर, निजी क्षेत्र किसी के जीवन का वह क्षेत्र है जिसमें व्यक्ति स्वयं के लिए काम करता है। उस डोमेन में, लोग काम करते हैं, सामानों का आदान-प्रदान करते हैं, और अपने परिवारों को बनाए रखते हैं; इसलिए यह उस अर्थ में, शेष समाज से अलग है।

9. जेंडर की सामाजिक रचना को अपने शब्दों में लिखिए |

उत्तर – सैद्धांतिक दृष्टिकोण लिंग के सामाजिक निर्माण का है, जो समाज में महिलाओं की स्थिति के प्रणालीगत पहलुओं की एक नारीवादी समझ को सूचित करता है और महिलाओं और पुरुषों के जीवन में इस वास्तविकता को प्रदर्शित करने के लिए अनुभवजन्य अनुसंधान को भी एकीकृत करता है। इस पाठक का ध्यान सामाजिक संरचनात्मक है, जिसमें लिंग को हर मौजूदा सामाजिक व्यवस्था की नींव के रूप में देखा जाता है। इस परिप्रेक्ष्य में, महिलाओं और पुरुषों की स्वचालित रूप से तुलना नहीं की जाती है; बल्कि, लिंग श्रेणियों (महिला-पुरुष, स्त्रीलिंग-पुल्लिंग, लड़कियों-लड़कों, महिलाओं-पुरुषों) को देखने के लिए विश्लेषण किया जाता है कि विभिन्न सामाजिक समूह उन्हें कैसे परिभाषित करते हैं, और वे रोजमर्रा की जिंदगी और प्रमुख सामाजिक संस्थानों में उनका निर्माण और रखरखाव कैसे करते हैं, जैसे कि परिवार और अर्थव्यवस्था।

   पहले खंड में तीन अध्याय, लिंग निर्माण के सिद्धांत, लिंग निर्माण की मुख्य प्रक्रियाओं की जाँच करते हैं – पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं के लिए भी – और इस निर्माण में लिंग और जाति के बीच के तरीके का विश्लेषण भी करते हैं।

   दूसरे खंड में, फैमिली लाइफ में जेंडर कंस्ट्रक्शन, तीन अध्याय पुरुषों की उन्नीसवीं सदी की पारिवारिक भूमिकाओं को देखते हैं, कि कैसे महिलाएं विभिन्न प्रकार के पितृसत्तात्मक परिवारों में सत्ता के लिए सौदेबाजी करती हैं, और अलग-अलग नस्लीय जातीय समूहों में परिवारों की संरचना और महिलाओं की स्थिति।

   तीसरे खंड, कार्यस्थल में लिंग निर्माण, कई विषयों को शामिल करता है। पहले दो अध्याय बताते हैं कि काम करने वाले संगठन कितने गहरे हैं। तीसरा अध्याय अधिक और कम आर्थिक संसाधनों के साथ अल्पसंख्यक समूहों में महिलाओं और पुरुषों की स्थिति की तुलना करता है। चौथा अध्याय महिलाओं की नौकरियों के लिए आम तौर पर कम वेतन और संयुक्त राज्य अमेरिका में गरीबी में रहने वाली महिलाओं की बड़ी संख्या के समाधान की आलोचना करता है।

   चौथा खंड, फेमिनिस्ट रिसर्च स्ट्रैटेजीज़, नारीवादी शोध की कुछ समस्याओं और उनके हल करने के तरीकों का संक्षिप्त परिचय प्रदान करता है।

   पाँचवाँ खंड, नस्लीय जातीय पहचान और नारीवादी राजनीति, महिलाओं की सामाजिक पहचान के धागों को छेड़ती है जहाँ जातीय समूह की पहचान एक प्रमुख कारक है। तीन जातीय समूहों की जांच एशियाई अमेरिकी, हिस्पैनिक अमेरिकी और पुर्तगाली अमेरिकी कर रहे हैं।

   अंतिम खंड, डिक्स्ट्रक्टिंग जेंडर, परिवर्तन की तीन अलग-अलग रणनीतियों की जांच करता है। एक रणनीति काम और परिवार के जीवन के पुनर्गठन के लिए एक छोटे समूह के बिना प्रमुख सामाजिक या लैंगिक भूमिकाओं की वैचारिक चुनौती है; दूसरी रणनीति एक स्थापित संस्था, कैथोलिक चर्च के साथ नारीवादी प्रतिरोध का आयोजन करती है; और तीसरी रणनीति समाज के प्रमुख संस्थानों का पुनर्गठन कर रही है ताकि वे काम और पारिवारिक जिम्मेदारियों के आवंटन के लिए लिंग के सामाजिक निर्माण पर निर्भर न हों।

10. प्रजनन सकधी स्वास्थ्य सूचकों की चर्चा कीजिए।

उत्तर – प्रजनन स्वास्थ्य के सूचकांक इस प्रकार हैं:-

देखभाल की गुणक्ता : प्रजनन अधिकारों का उददेश्य प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक सबकी पहुंच को सुनिश्चित करना है। संबंधित व्यक्ति की देखभाल करने का उपागम (दृष्टिकोण) कार्य योजना का एक अभिन्‍न अंग बन गया है। उदाहरण के लिए, देखभाल के प्रकार ग्राहकों को सेवा प्रदाता व्यवस्था के द्वारा दिया जाता है। लगातार परामर्श, अन्तर वैयक्तिक संप्रेषण तथा ग्राहकों एवं सेवा प्रदाताओं में सूचना का आदान प्रदान देखभाल की गुणवत्ता का मुख्य हिस्सा बन गया हैं। कौशल विकास के लिए प्रशिक्षण प्रदान करने पर भी आई.सी.पी.डी. की कार्य योजना में बल दिया जाता है। सादिक (200) के अनुसार, विभिन्‍न देशों की यूएन.एफ.ए. फील्ड अध्ययन से इस बात का पता चला कि 45 देशों ने सेवा प्रदाताओं को इस बात का प्रशिक्षण दिया कि वे अपने देशों में प्रजनन स्वास्थ्य एवं अधिकार के उपागम को लागू करें।

लैंगिक सम्बन्ध (जेंडर संबंध तथा महिला सशक्तिकरण) : प्रजनन स्वास्थ्य एवं अधिकारों का यह एक सूचकांक है। अनेक देशों ने महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभावों को समाप्त करने के लिए पहल की तथा देश में सरकारी स्तर पर यह प्रयास किया गया था कि लैंगिक समानता के लिए सोच बन सके | यू एन.एफ.पी.ए. रिपोर्ट के अनुसार 144 देशों में से 98 देशों ने लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए सकारात्मक पहल की।

मर्भनिरोध एवं गर्भपात : प्रजनन स्वास्थ्य एवं अधिकार के अन्तर्गत नारीबाद विश्लेषण का यह एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। वर्ष 2010 में (गर्भ निरोधक) गोलियों के विकास के पचास वर्ष पूरे हो गए इसलिए बहुत से विशेषज्ञों ने यह राय दी कि गर्भ निरोधक गोलियों ने लैंगिक सम्बन्धों को अत्याधिक प्रभावित किया है। उदाहरण के लिए,गोलियों का विकास तथा बेहतर गर्भ निरोधक तशीको में अवांछित गर्भधारण से बचने के लिए महिलाओं को प्रजनन के चुनाव को प्रोत्साहित किया है जिसके परिणास्वरुप मातृत्व स्वास्थ्य सूचकांक में भी परिवर्तन हुआ। अनचाहे गर्भ का परिणाम गर्भपात कराना होता है जो बहुत से देशों में गैर कानूनी है। विकसित देशों में गर्भपात से जुड़ी जटिलताओं का परिणाम मातृत्व मृत्यु हो जाता है जब गर्भपात गैर कानूनी और असुरक्षित स्थितियों में किया जाता है। विश्व भर में 13 प्रतिशत मातृत्व मृत्यु असुरक्षित गर्भपात के कारण होती हैं (विश्व स्वास्थ्य संगठन क्षेत्रीय कार्यालय अफीका 2010, लिप्स 2014 द्वारा उद्धृत)।

मानसिक स्वास्थ्य : मानसिक स्वास्थ्य प्रजनन स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण आयाम है। मानसिक स्वास्थ्य का जोखिम प्राय: गर्भधारण, बच्चे के जन्म गरीबी तथा बाल विवाह तथा जल्‍दी गर्भधारण की सामाजिक रीतियों के कारण बढ़ जाता है (लिप्स 2014) ने गर्भधारण से संबंधित कुछ जटिलताओं का उल्लेख किया है जिनमें प्रसव काल एवं जन्म देने के बाद अत्याधिक रकक्‍्तस्त्राव, संक्रमण, अत्याधिक तनाव, हृदय रोग, मधुमेह, गर्भपात आदि शामिल है। विकासशील देशों में गर्भधारण से संबंधित जटिलताओं से  अत्याधिक गरीबी के कारण मातृत्व मृत्यु के जोखिम में वृद्धि हो जाती है। विकसित देशों में गर्भधारण से संबंधित मृत्यु दर उन महिलाओं में अधिक हो जाती है जिनकी पहुंच आर्थिक संसाधनों तथा आधुनिक स्वास्थ्य उपचारों तक कम होती है। विकसित और विकासशील दोनों ही प्रकार के देशों में मातृत्व मृत्यु उन महिलाओं में एक जैसी होती है जो कमजोर वर्ग से होती है। आइए, एक केस स्टडी देखें कि कैसे भारत में महिलाएं प्रजनन सुविधाओं से वंचित हैं।

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